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कौन सी शाम की बात लिखू हुई थी या नहीं वोह मुलाक़ात लिखू(प्यार शायरी 2016)

हसीन  थी  घड़ियाँ और  मजबूर थे लम्हे
एक ही पन्नें पर दोनों कैसे लिखू  !

कौन सी शाम की बात लिखू
हुई थी या नहीं वोह मुलाक़ात लिखू

ढलते हुए शाम के साये में
उभरते हुए जज़्बात लिखू

अँधेरे खड़े थे लेकर रातों का सहारा
लड़खड़ाते कदमो से कैसे लिखू

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बंध थे सारे मयखाने के दरवाज़े
लरज़ते हाथो से कैसे फ़रियाद लिखू

अदब से खड़े थे अलफ़ाज़ खयालो के पीछे
कौन सा ख्याल छुपाऊ और कौन सा लिखू

अक्सर कलम की जगह ले लेती है शमशीर
जब जब हथेलियों पर तेरा नाम लिखू

हुस्न बेपर्दा भी देखा है मैंने
चमक उसके नूर की कैसे में लिखू

हसीन  थी  घड़ियाँ और  मजबूर थे लम्हे
एक ही पन्नें पर दोनों कैसे लिखू  !



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