जिंदगी के लबों पर कोई पैगाम नहीं है,
अपनी किस्मत में चाहत की शाम नहीं है।
बदला है जबसे आदमी ने फितरत का चोला,
दिल की क़िताब में वफ़ा का नाम नहीं है।
बिछड़कर उनसे क्या आ गए हैं हम,
ज़िंदगी को कहीं पर भी आराम नहीं है।
सच है, हादसों ने बदल दी चेहरे की रंगत,
मगर, सच ये भी ये हमारा अंज़ाम नहीं है।
सुरुर में हम भी डुबना चाहते हैं लेकिन,
किसी नज़र में उल्फ़त का जाम नहीं है,
माहौल इस तरह भी बदलते देख रहे,
हाथ उठते हैं मगर जुबां पे सलाम नहीं है।
कहां ढूंढ़ोगे ‘आस' काफिरों की ज़मीं पर,
यहां ईसा-मसीह, बुद्ध कोई राम नहीं है।